प्रबोधिनी या देवोत्थानी एकादशी का व्रत 15 नवम्बर दिन सोमवार को है। आचार्य पंडित शरद चंद्र मिश्र ने बताया कि वाराणसी से प्रकाशित हृषीकेश पञ्चाङ्ग के अनुसार इस दिन सूर्योदय 6 बजकर 36 मिनट और एकादशी का मान प्रातःकाल 8 बजकर 51मिनट तक के पश्चात सम्पूर्ण दिन और रात्रि पर्यन्त द्वादशी तिथि है। धर्मशास्त्र के अनुसार द्वादशी से समन्वित एकादशी अत्यन्त उत्तम एवं प्रशस्त माना गया है। इसलिए व्रत्रोपवास और अर्चन के लिए यही दिन मान्य रहेगा। चन्द्रमा की स्थिति बृहस्पति के राशि पर होने से यह समस्त शुभता को प्रदान करने वाला रहेगा।
कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवोत्थानी या प्रबोधिनी एकादशी के नाम से विख्यात है। इस तिथि को वर्षा के चार मास तक शयन के अनन्तर भगवान विष्णु जाग्रत होते है। भगवान विष्णु के शयन के कारण आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चार महीनो में विवाहादि कार्य निषिद्ध होते हैं। इस एकादशी को सनातनी लोग व्रत रखते है। प्रातः स्नानादि से निवृत होकर पूरे दिन के व्रत रखने के लिए संकल्प रखते है फिर रात्रि के समय भगवत्कथा व विष्णु स्तोत्र के अनन्तर शंख, घंटा, घड़ियाल का वादन करते हुए निम्न मन्त्र का उच्चारण करते हुए भगवान को जगाया जाता है। "उत्तिष्ठ-उत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पते। त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत्सुप्तमिदं भवेत्।। उत्तिष्ठ-उत्तिष्ठ वाराह दंष्ट्रोद्धृतवसुन्धर। हिरण्याक्ष प्राणघातिन् त्रैलोक्ये मंगलं कुरू।।" भगवान को जगाने के पश्चात श्रीभगवान के मन्दिर अथवा सिंहासन को सजावट करके, भगवान को षोडशोपचार पूजा और आरती की जाती है। एकादशी की रात्रि मे कथा-कीर्तन आदि करके द्वादशी मे पारण किया जाता है। यह वैष्णव मतानुयायियों का पवित्र व्रत है। इस दिन खड़िया मिट्टी या गेरू से घर के आंगन में देवो को आकृति बनायी जाती है। वहाॅ घृत का दीपक जलाकर रख दिया जाता है। वही पर सिंघाड़ा, ॠतुफल और गन्ना को भी रख दिया जाता है। रात्रिकाल में परिवार के सभी व्यक्ति देवताओं का पूजन कर थाली बजाते हुए -"उठो देव! उठो देव"-इत्यादि कहकर देवों को जगाते हैं। कुछ स्थानो में इस दिन मांगलिक गीत भी गाये जाते हैं। देव उठने का यह पर्व बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसी दिन से विवाहादि शुभ कार्यों का प्रारम्भ होने लगता है।
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