देवकार्य से भी पितृकार्य का विशेष महत्त्व है। देवताओं से पहले अधिक आवश्यक है, पितरों को प्रसन्न करना
पितृपक्ष की अमावस्या के दिन कुल के सारे पितृगण वायु रूप में घर के दरवाजे पर खड़े रहते हैं और अपने स्वजनों से श्राद्ध की अभिलाषा रखते हैं। जब तक सूर्यास्त नहीं हो जाता, तब तक हमारे आत्मज- भूख-प्यास से व्याकुल होकर वहीं खड़े रहते हैं। सूर्यास्त हो जाने के पश्चात ( अंशजों के द्वारा श्राद्ध न किये जाने के कारण) वे निराश होकर दुःखित मन से अपने-अपने भोग- लोकों को वापस चले जाते हैं। अतः, अमावस्या के दिन तो परम् श्रद्धा पूर्वक अपने "समस्त" दिवंगत पितरों के निमित्त श्राद्ध अवश्य ही करना चाहिए।
आचार्य पंडित शरद चंद्र मिश्र,
गोरखपुर। पितृपक्ष आरम्भ 21 सितम्बर को हुआ है। यह 6 अक्टूबर तक चलेगा। 6 अक्टूबर को (अमावस्या) पितृ विसर्जन का दिवस है। जिन पितरों की तिथि ज्ञात नही है, उनका ज्ञाद्ध इसी दिन होगा। इसके अतिरिक्त पितृपक्ष मे तर्पण और श्राद्ध करने वाले इस दिन अपने समस्त पितरों को तृप्त भी करते है। पितृपक्ष में न केवल उन मृतक परिजनों का श्राद्ध किया जा सकता है, जिनका सम्बन्ध तीन पीढ़ी तक है-वरन अपने सात पीढ़ी के मृतक परिजन आदि के निमित्त भी श्राद्ध कर सकते हैं। इस हेतु आश्विन कृष्ण अमावस्या को सर्व पितृ श्राद्ध किया जा सकता है। पितृपक्ष मे अपने मृतक पूर्वजो की तिथि हो या सर्वपितृ अमावस्या के दिन पंचबलि विधान के पश्चात ब्राह्मणो को भोजन और दक्षिणा का भी विधान है। साथ ही अपनी श्रद्धानुसार पितरों के निमित्त अन्न,जल और वस्त्र इत्यादि का दान भी बताया गया है।
यह कार्य संकल्प लेकर किया जाता है। श्राद्ध करने वाले व्यक्ति को चाहिए कि इस दिन इस निमित्त संकल्प करे-"अहं अस्मत् पितुः-पितामह-प्रपितामहनां सपत्नीकानां तातम्बात्रितमित्यादि शास्त्रबोधितावशिष्ट सम्बन्धी बान्धवानां ये च अस्मतो अभिवाञ्छन्ति तेषां च क्षुत्पिपासा निवृतिपूर्वकं अक्षयतृप्ति सम्पादनार्थ॔ ब्राह्मण भोजनात्मकं सांकल्पिक श्राद्धं तथा च पंचबलि कर्मं करिष्ये।"--
इस प्रकार पितृपक्ष में संकल्प के जल को पृथ्वी पर छोड़ देना चाहिए।फिर ब्राह्मणों को भोजन करवाने के पूर्व (गोबलि,श्वान बलि, कागबलि, देवादिबलि एवं पिपीलिकाबलि) करनी चाहिए। पांच पत्तलों में अलग-अलग भोजन सामग्री निकाल लें। गोबलि देते समय जब पत्तल पर खाद्य सामग्री रखी जाए, तो निम्नलिखित मन्त्र का ऊच्चारण करें--"सौरभेय्यः सर्वहिताः पवित्राःपुण्यराशयः।प्रतिगृह्णन्तु में ग्रासं गावस्त्रेलोक्य मातरः"---इसी प्रकार श्वानबलि निकालते समय निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें--
"द्वौ श्वानौ श्यामसबलौ वेवस्वतकुलोद्भवौ। ताभ्यामन्नं प्रयच्छामि स्यातामेतावहिंसकौ।।" -इदं श्वभ्यां न मम।
पिपीलिका बलि निकालते समय निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें--"पिपीलिकाः कीटपतंगकाद्या बुभुक्षिताः कर्मनिबन्धबद्धाः तेषां हि तृप्त्यर्थमिदं मयान्नं तेभ्यो विसृष्टं सुखिनो भवन्तु।।"-
इस प्रकार पितृपक्ष में संकल्प के जल को पृथ्वी पर छोड़ देना चाहिए।फिर ब्राह्मणों को भोजन करवाने के पूर्व (गोबलि, श्वान बलि, कागबलि, देवादिबलि एवं पिपीलिकाबलि) करनी चाहिए। पांच पत्तलों में अलग-अलग भोजन सामग्री निकाल लें।
गोबलि देते समय जब पत्तल पर खाद्य सामग्री रखी जाए, तो निम्नलिखित मन्त्र का ऊच्चारण करें--
"सौरभेय्यः सर्वहिताः पवित्राःपुण्यराशयः। प्रतिगृह्णन्तु में ग्रासं गावस्त्रेलोक्य मातरः"
इसी प्रकार श्वानबलि निकालते समय निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें--"द्वौ श्वानौ श्यामसबलौ वेवस्वतकुलोद्भवौ।ताभ्यामन्नं प्रयच्छामि स्यातामेतावहिंसकौ।।"---इदं गोभ्यो न मम।
इस प्रकार देवबलि निकालते समय निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करे---"देवा मनुष्याः पशवो वयांसि सिद्धाः सयक्षोरगदैत्यसंघाः।प्रेता पिशाचास्तरवः समस्ता ये चान्नमिच्छन्ति मया प्रदत्तम्।।"-इदमन्नं देवादिभ्यो न मम।
इस प्रकार काकबलि निकालते समय निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें--"ऐन्द्रवारूणवायव्या याम्या नैर्ॠतास्तथा।वायसाः प्रतिगृह्णन्तु भूमौ पिण्डं मयोज्झितम्।।"-इदमन्नं वायसेभ्यो न म पंचबलि के निमित्त निकाला गया समस्त भोजन पहले के क्रम से गाय, कुत्ता, कौआ, देवता (देवताओं के निमित्त अग्नि को समर्फित किया जा सकता है) एवं चींटियों को खिलाया जा सकता है।
श्राद्ध परम पुनीत कार्य श्राद्ध है। इसके करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। पुराणों में एक कथा इस तरह से मिलती है। प्राचीन काल में कुरुक्षेत्र में कौशिक नामक एक ब्राह्मण अपने सात पुत्रों के साथ रहता था। उनके पुत्र श्राद्ध कर्म करने के प्रभाव से अपने पूर्व जन्म की स्मृति रखते थे। इसी के परिणामस्वरूप उन्हें विभिन्न योनियों में जन्म होने के पश्चात पितरो के आशीर्वाद से बैकुण्ठ की प्राप्ति हुई थी। इस संबंध में कथा है -कौशिक के सात पुत्रों में से कालान्तर एक राजा और दो मन्त्री हुए थे। पहले किसी बात पर पिता के द्वारा शापित होने पर यह सातों भाई गुरू गार्ग्य के वहाॅ रहने लगे ।वहाॅ भी उनसे गाय से सम्बन्धित कोई अपराध हो गया। जिसके फलस्वरूप वे सातो अगले जन्म में व्याध के रूप में जन्म ग्रहण किये थे। फिर भी पूर्वजन्म की स्मृति थी।व्याध होते हुए भी वे काम,क्रोध,लोभ से दूर रहते थे। साथ ही धर्म मार्ग पर चलते हुए पिता का सम्मान करते थे।माता पिता के निधन के बाद वे भी प्राण त्याग दिये। वे सब माता-पिता का सत्कार करते थे । अपने शुभ कर्मों के प्रभाव से वे सातो अगले जन्म में भी कालञ्जर पर्वत पर मृग हुए।तब भी उनके पास पूर्व जन्म की स्मृति बनी रही। वहाॅ रहकर वे तपस्या करने लगे। अगले जन्म वे में चक्रवात नामक पक्षी हुए। कुछ समय इस योनि मे रहने के बाद वे अपने प्राण त्याग दिए। पुनः मानसरोवर में वे सब हंस के रूप में जन्म ग्रहण किए। एक दिन वहाॅ रहते हुए गंधर्व राज को देखकर उसके मन में यह विचार आया कि मैं भी यदि राजा होता तो कितना अच्छा होता। उनमें से एक भाई राजा और दो भाईयों ने मन्त्री होने की कामना की। यह बात चार भाईयो को अच्छी नहीं लगी। अपने कामना के अनुसार अगले जन्म में तीन भाईयों में से एक राजा और दो मन्त्री हुए परन्तु अन्य चार भाई पूर्व जन्म की स्मृति के कारण ब्राह्मण हो गए। ये चार भाई अपने तीनों भाइयों के कल्याण की कामना किया करते थे। इन चारों की बुद्धि वैराग्य पूर्ण थी। उन्होंने अपने पिता से वन में जाने की आज्ञा मांगी।वे वन मे तपस्या करने के लिए चले गये और जाते समय अपने पिता से कहे कि आप राजा ब्रह्मदत्त और उनके मन्त्री को एक श्लोक सुनायें। उनके पिता ने जाकर उस लिखित श्लोक को राजा ब्रह्मदत्त अपने दोनों मंत्रियों को उस समय सुनाया, जब वे सरोवर में स्नान कर लौट रहे थे। उसी समय उन्होने यह मन्त्र उच्चारित किया जिसको इन चारों भाईयों ने सुनाने के दिए कहा था ।उसको सुनकर राजा ब्रह्मदत्त अपने मंत्रियों सहित अचेत हो गए क्योंकि उसमें उनके पूर्व जन्म का वृतान्त था।इससे राजा को पूर्व जन्म का स्मरण हो गया। उनके अन्तःकरण मे वैराग्य की प्राप्ति हुई। राजा ब्रह्मदत्त अपने पुत्र विश्वक्सेन को राजगद्दी पर बैठा करकर वन में तपस्या करने के लिए चले गए।इसी तरह दोनों मन्त्रियों को भी पूर्व जन्म की स्मृति हो गई थी और उन्होंने अन्त में तपस्या करके मोक्ष चबलि करने के पश्चात ब्राह्मणों को भोजन करवाना चाहिए। भोजन में अन्न, घृत, चीनी, नमक इत्यादि षडरस होना चाहिए। भोजन के पश्चात ब्राह्मण को अपना पितृदेवता समझकर उन्हे ताम्बूल एवं दक्षिणा प्रदान करें। उसके पश्चात उनकी परिक्रमा करें। तत्पश्चात उन्हें सन्तुष्ट कर विदा करें।
जिस प्रकार मनुष्य अपने विशिष्ट कामनाओं की पूर्ति करने के लिए विशिष्ट देवी देवताओं की उपासना करता है, ऐसे ही विभिन्न कामनाओं और समृद्धि के लिए पितरों की पूजा करने का भी विधान सनातन धर्म के ग्रंथों में मिलता है। जब कोई व्यक्ति पितरों की पूजा उपासना नहीं करता, तो ऐसी स्थिति में उसके उस व्यक्ति को पितरो का आशीर्वाद नहीं मिल पाता है। अधोगति वाले पितर अपनी संतुष्टि नहीं पाने पर परिजनों को नुकसान भी पहुंचाते हैं। इसलिए पितरों की संतुष्टि आवश्यक मानी गई है सनातन धर्म में पितरो से मुक्त होने के लिए भी पितरों को संतुष्टि आवश्यक बताई गई है। यह तभी संभव है जब व्यक्ति अपने माता-पिता तथा अन्य परिजनों के साथ अपने पितरो को भी श्राद्ध आदि कर्मों से संतुष्ट करें। मनुष्य अपनी भौतिक कामनाओं के लिए विभिन्न प्रयासों के अनुरूप ईश्वर से प्रार्थना भी करता है और कई बार प्रयास करने के पश्चात भी सफलता प्राप्त नहीं हो पाती है। तब वह विभिन्न देवी देवताओं की उपासना करता है एवं कई अन्य प्रकार से उपाय करता है तथा अपने पितरों को संतुष्ट करने का प्रयास करता है। कई मामलों में पितरों के असंतुष्ट हो जाने पर भी व्यक्ति का भौतिक विकास बाधित हो जाता है और उसे कई प्रकार के कष्ट से गुजरना पड़ता है ।जीवन में कोई सुख निरन्तर नहीं रहता है और अथक प्रयास- परिश्रम के पश्चात भी सफलता प्रदान नहीं हो पाती है। इसलिए देवी देवताओं के पूजन के साथ पितरों के पूजन करने से जीवन में सभी प्रकार की सुख समृद्धि प्राप्त होती है।
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