जब बहुला की परीक्षा लेने के लिए श्री कृष्ण ने धारण किया था यह रूप
भगवान श्रीकृष्ण का बहुला गाय से बड़ा स्नेह था। एक बार श्रीकृष्ण के मन में बहुला की परीक्षा लेने का विचार आया। जब बहुला वन में चर रही थी तभी भगवान श्रीकृष्ण सिंह रूप में प्रकट हो गए।
आचार्य पंडित शरद चंद्र मिश्र के अनुसार भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी बहुला चतुर्थी या बहुला चौथ कहलाती है। यह व्रत पुत्रवती स्त्रियां अपने पुत्रों की रक्षा के लिए करती हैं। वास्तव में, यह गो-पूजा का पर्व है। माता की ही तरह गाय अपना दूध पिलाकर गौ मनुष्य की रक्षा करती है।
गाय की महत्ता को प्रतिपादित करने वाला व्रत है बहुला चतुर्थी
भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को बहुला चौथ व्रत के रूप में मनाया जाता है। इसे बहुला गणेश चतुर्थी भी कहते हैं। इस दिन महिलाएं संतान की लंबी आयु की कामना के लिए व्रत और उपवास रखती हैं। यह पर्व 25 अगस्त दिन बुधवार को पड़ रहा है। काशी से प्रकाशित पंचांग के अनुसार सूर्योदय 5 बजकर 39 मिनट और तृतीया तिथि का मान सायंकाल 4 बजकर 26 मिनट तक, पश्चात चतुर्थी तिथि है, चंद्रोदय चतुर्थी तिथि में ही होगा। चंद्रोदय का समय 8 बजकर 37 मिनट है। नक्षत्र उत्तराभाद्रपद और चंद्रमा की स्थिति मीन राशि पर है। इस व्रत में गाय बछड़े की पूजा होती है।
व्रत विधि
इस दिन प्रातःकाल जल्दी उठकर स्नान करे। पुनः स्वच्छ वस्त्र धारण करना चाहिए। दिन भर श्रीकृष्ण भगवान का चिन्तन करें और शाम के समय गाय और बछड़े की पूजा करें ।पूजा में कई तरह के पकवान बनाए जांए और वह बहुला को समर्पित किया जाय।पूजा के बाद इसे गाय और बछड़े को खिला दिया जाय। बहुला चतुर्थी के दिन भगवान गणेश की पूजा का विधान है। मान्यता है कि उनकी पूजा करने से सुख की प्राप्ति होती है और यह भी कहा जाता है कि बहुला चतुर्थी व्रत संतान को मान सम्मान और ऐश्वर्य प्रदान करने वाला व्रत है। निसंतान को संतान सुख की प्राप्ति होती है और संतानों को कष्ट से मुक्ति मिलती है। धन-धान्य की वृद्धि का भी योग प्राप्त होता है।
प्रचलित कथा
बहुला चतुर्थी से संबंधित एक रोचक कथा है। जब भगवान विष्णु का कृष्ण के रूप में अवतार हुआ था तो उनकी लीला में सम्मिलित होने के लिए देवी देवता लोग गोप गोपियों के रूप में अवतार लिए थे। कामधेनु नामक गाय के मन में श्रीकृष्ण सेवा का विचार आया तो आपने अंश से बहुला नाम की गाय बनकर नंद बाबा की गौशाला में आ गई। भगवान श्री कृष्ण का बहुला से बड़ा प्रेम था। एक बार श्री कृष्ण के मन में बहुला की परीक्षा लेने का विचार आया। जब बहुला वन में चर रही थी तब भगवान श्रीकृष्ण सिंह के रूप में उसके सामने प्रकट हो गए। मौत बनकर खड़े सिंह को देखकर बहुला भयभीत हो गई लेकिन हिम्मत करके सिंह से बोली--" हे वनराज मेरा बच्चा भूखा है। बछड़े को दूध पिला कर मैं आपका आहार बनने के लिए वापस आ जाऊंगी। सिंह ने कहा कि सामने आए आहार को कैसे जाने दूं और कहा कि यदि तुम तक वापस नहीं आई तो मैं भूखा ही रह जाऊंगा। बहुला ने कहा कि मैं सत्य और धर्म की शपथ लेकर कहती हूं कि मैं अवश्य आपके पास वापस आऊंगी और आपका आहार बनूंगी। बहुला के सत्य धर्म से प्रभावित होकर सिंह बने श्रीकृष्ण ने उसे जाने दिया। बहुला अपने बच्चे को दूध पिला कर वापस आ गई।बहुला की सत्य निष्ठा देकर श्री कृष्ण अत्यंत प्रसन्न हुए और अपने वास्तव स्वरूप में आकर कहने लगे--" बहुले तुम परीक्षा में सफल हो गई। मैं भाद्रपद चतुर्थी के दिन गौ माता के रूप में तुम्हारी पूजा की विधि निर्देशित करूंगा। तुम्हारी पूजा करने वालों को संतान सुख की प्राप्ति होगी और जिनके संतान हैं, उनकी संतानों का विकास भी होगा।
इस दिन गायों की पूजा के साथ साथ भगवान श्री विष्णु और श्री कृष्ण की भी पूजा की जाती है। और गाय के दूध से बने हुए पदार्थों का उपयोग करना वर्जित रहता है। इस दिन गणेशस्त्रोत्र वह विष्णु सहस्त्रनाम के पाठ का भी विधान है।
हे गोओं! प्राणियों को तत्-तत् कार्यों में प्रवृत्त कराने वाले सविता देव आपको शस्य संपन्न विस्तृत क्षेत्र में चरने के लिए ले जाएं ।क्योंकि आपके द्वारा श्रेष्ठ कर्मों का अनुष्ठान होता है। आपके द्वारा श्रेष्ठ कर्म का अनुष्ठान होता है।आप अधिक दूध देने वाली होंवे ।आपकी कोई चोरी ना कर सके। हिंसक जीव भी आपको न मार सकें। क्योंकि आप तमोगुण हिंसक जीव द्वारा मारे जाने योग्य नहीं है। आप बहुत संतान उत्पन्न करने वाली हैं। जिनसे संसार का बहुत बड़ा कल्याण होता है। आप जहां रहती हैं वहां किसी भी प्रकार की व्याधि नहीं आ सकती है। यहां तक कि तपेदिक आदि राजरोग भी आपके पास नहीं आ सकते हैं अतएव आप सर्वदा यजमान के घर में सुख पूर्वक निवास करें।
वेदों में गौ की महिमा के विषय में बहुत कुछ कहा गया है। मानव जाति के लिए गौ से बढ़कर उपकार करने वाला और कोई नहीं है। गौ मानव समाज की माता के समान उपकार करने वाली और निरोगता देने वाली है। यह अनेक प्रकार से प्राणी मात्र की सेवा कर उन्हें सुख पहुंचाती है। इसके उपकार से मनुष्य कभी उऋण नहीं हो सकता। यही कारण है कि हिंदू समुदाय गाय को देवता और माता समझकर उसकी सेवा करना अपना परम धर्म समझते हैं। गाय का महत्व प्रतिपादित करने वाले कुछ वेद मंत्र और शास्त्र वचन इस प्रकार मिलते हैं-"देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मण आप्यायध्यमध्न्या इन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवां अयक्ष्मा भावस्तेन ईशत माघशॅ सो ध्रुवा अस्मिन्गोपतौ स्यात्।।"
इस प्रकार गाय के आशिर्वाद से अभिसिंचित अनेक श्लोक और कथाएं हमारे साहित्य में हैं। बहुला व्रत की कथा भी उसी कड़ी का एक भाग है।
गौ की उत्पत्ति और उसकी महिमा के विषय में भी बहुत कुछ कहा गया है। गौ की अपार महिमा और उसके दैवी गुणों से हिंदू शास्त्रों के पन्ने भरे हुए पड़े हैं। पुराणों में गौ के प्रभाव और उसकी विशिष्टता की ऐसी अनगिनत कथाएं मिलती हैं जिनसे विदित होता है कि हमारे पूर्वज गौ के महान भक्त थे और उसकी रक्षा करना अपना बहुत बड़ा धर्म समझते थे। गौरक्षा में प्राण अर्पण कर देना हिंदू बड़े गर्व की बात समझते थे और उसका पालन करना बड़े सौभाग्य की बात मानी जाती थी। गौ का महत्व यहां तक समझा जाता था कि उसके शरीर में 33 करोड़ देवताओं का निवास बतलाया गया है और इसकी उत्पत्ति अमृत, लक्ष्मी आदि 14 रनों के अंतर्गत मानी गई है। यद्यपि कथाएं एक प्रकार की रूपक है, पर उनके भीतर बड़े-बड़े आध्यात्मिक और कल्याणकारी तत्व भरे हैं। गौ की उत्पत्ति में कई प्रकार की कथाएं मिलती हैं। पहली तो यह कि जब ब्रह्मा एक मुख से अमृत पी रहे थे तो उनके दूसरे मुंह से कुछ फेन निकल गया और उसी से गाय सुरभि की उत्पत्ति हुई।
दूसरी कथा में कहा गया है कि दक्ष प्रजापति की 60 कन्याएं थी। उन्हीं में से एक सुरभि भी थी। तीसरे स्थान में यह बताया गया है कि सुरभि अर्थात स्वर्गीय गाय की उत्पत्ति समुद्र मंथन के समय 14 रत्नों के साथ ही हुई है। सुरभि के सुनहरे रंग कपिला गाय की उत्पत्ति हुई जिसके दूध से झीरसागर बना।
प्राचीन काल से आर्य ही आर्य जाति गाय की बहुत अधिक महिमा मानती आई है। ऋग्वेद तथा अन्य वेदों में भी गाय के गुणानुवाद के सैकड़ों मंत्र भरे पड़े हैं। गाय के शरीर में सभी देवताओं का निवास माना गया है। शास्त्रों में कहा गया है कि धन की देवी लक्ष्मी जी पहले गाय के रूप में आईं और उन्हीं के गोबर से बिल्व वृक्ष की उत्पत्ति हुई। कपिल मुनि के श्राप से जले हुए अपने 60 हजार पूर्वजों की राख का पता जब दिलीप नहीं लगा सके तब गुरु वशिष्ठ जी ने उनकी आंख में नंदिनी गाय का मूत्र डाल दिया। जिससे उनको दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गई और भी पृथ्वी में दबी हुई अपने पुरखों की राख का पता लगाने में असमर्थ हो सके। गंगा जी को सर्वप्रथम पृथ्वी पर आने को कहा गया तो वह बहुत दुखी हुए और आनाकानी करने लगी। उन्होंने कहा कि पृथ्वी पर पापी लोग मुझ में स्नान करके मुझे अपवित्र किया करेंगे ।इसलिए मैं मृत्युलोक में नही जाऊंगी तब पितामह ब्राह्मा जी ने समझाया कि लोग तुमको कितना भी अपवित्र क्यों न करें फिर भी गाय का पैर लगने से तुम पवित्र होती रहोगी। इससे भी गाय और गंगा की हिंदू धर्म में विशेष संबंध होने पर प्रकाश पड़ता है।
आचार्य पंडित शरद चंद्र मिश्र, अध्यक्ष, रिलीजस स्कॉलर विद्वत संघ, गोरखपुर
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