हर दूसरी वेब सीरीज या फिल्म में असल तथ्यों को जान-बूझकर अनदेखा करके हिन्दू को खलनायक और 'मुस्लिम को बड़े दिल वाला' दिखाने के पीछे की मानसिकता को पहचानना होगा?
अनामिका,
अमेज़ॉन प्राइम हो, नेटफ्लिक्स या कोई और, ऐसा लगता है जैसे ज्यादातर ओटीटी
प्लेटफार्म हिन्दू विरोधी एजेंडा चलाने की दुकानें हैं। इसी से वे ढेरों
पैसा पा रहे हैं। कोई भी वेब सीरीज देख लीजिए, सिनेमाई अभिव्यक्ति की आजादी
के नाम पर किसी भी तरह कथानक को तोड़ने—मरोड़ने, पात्रों को हिन्दू नाम देकर
फ़िल्मकारों के एक गुट ने सिनेमाई जिहाद जैसा चला रखा है।इस संदर्भ में सबसे ताजा उदाहरण है 'सत्यनारायण की कथा'। इसके ख़िलाफ़ मध्य प्रदेश में विरोध तेज होता जा रहा है। मध्य प्रदेश के गृह मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्र ने कहा है कि इस वेब सीरीज के आपत्तिजनक दृश्यों की जांच के लिए उन्होंने पुलिस महानिदेशक को निर्देशित किया है। जांच रिपोर्ट के आधार पर कार्रवाई का निर्णय लिया जाएगा। भोपाल से सांसद साध्वी प्रज्ञा ठाकुर ने भी निर्माता साजिद नडियाडवाला को खुली चेतावनी दी है कि वे इसका नाम बदलें वरना इसे प्रदर्शित नहीं होने देंगे।
चौतरफ़ा दबाव के चलते, सुनने में आया है कि अभिनेता कार्तिक आर्यन की इस विवादास्पद फिल्म का नाम बदला जा रहा है। फिल्म के निर्देशक समीर विद्वांस ने इस बारे में सफाई देते हुए कहा है कि फिल्म का नाम इसलिए बदला जा रहा है ताकि किसी की भावनाएं आहत न हों।
उधर,राज्य के गृहमंत्री डॉ. मिश्र कहते हैं कि फिल्म और वेब सीरीज के निर्माता हिंदू देवी-देवताओं को निशाना बनाना बंद करें। ऐसे लोगों की हिम्मत नहीं होती कि किसी अन्य मत—पंथ के प्रति ऐसा रवैया दिखा सकें। इन्हें हिन्दुओं के देवी-देवता ही आसान निशाना लगते हैं। मध्य प्रदेश के गृहमंत्री कहते हैं कि महिलाओं के प्रति हिंसात्मक व्यवहार बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। समाज में यह प्रवृत्ति चिंताजनक है। सभ्य समाज में ऐसी हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है।
साध्वी प्रज्ञा ठाकुर कहती हैं कि ये सेकुलर फिल्मकार हिन्दुओं के देवी-देवताओं के नाम या हिन्दू कथाओं को तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं। सनातन धर्म की संस्कृति है कि हम किसी को कष्ट नहीं देते, लेकिन कोई हमें कष्ट देगा तो उसके साथ उचित व्यवहार करेंगे।
बॉलीवुड फ़िल्म उद्योग पर मुस्लिम निर्माता-निर्देशकों और कॉमरेडों का लंबे समय से कब्जा रहा है। ये लोग कथानक में इतनी सफ़ाई से परिवर्तन कर देते हैं कि आम दर्शक इसे समझ ही नहीं पाता है। मेघना गुलज़ार अपनी फ़िल्म छपाक को 'असली घटनाक्रम पर आधारित' बताती हैं, पर महिला पर एसिड फेंकने वाले असल मुस्लिम पात्र का नाम हिन्दू रख देती हैं।
'शेरनी' में मुख्य भूमिका में हैं विद्या बालन
हिन्दुओं के प्रति नफरत उपजाने का मसाला इतनी कलाकारी से पटकथा में डाला जाता है कि दर्शक को पता भी नहीं चलता। इस तरह हमारी युवा पीढ़ी के दिमाग में जहर भरा जा रहा है।'शेरनी' फ़िल्म में निर्मम शिकारी के पात्र को मुस्लिम की बजाय हिन्दू दिखाया गया है। बाघिन को बचाने वाली महिला वन अधिकारी ईसाई दिखाई गई है, जिसकी मदद करने वाला प्रोफेसर मुसलमान है, जबकि असल कहानी में दोनों हिन्दू थे।
वेब सीरीज तांडव हो या आश्रम या फिर मैडम चीफ मिनिस्टर, हर एक में हिन्दुओं की छवि को जानबूझकर खलनायक दिखाने का कुत्सित प्रयास किया गया है। जातिगत वैमनस्य फैलाने और ब्राह्मण विरोध की भावना को बढ़ाने की एक चेष्टा 'आर्टिकल 15' में दिखी जिसमें बलात्कारियों को 'महंत के बेटे' दिखाया गया है। आखिर सिनेमाई अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर यह धांधली कब तक चलती रहेगी?
गत 18 जून को प्रदर्शित हुई विद्या बालन की फ़िल्म 'शेरनी' 2018 में नागपुर में आदमखोर घोषित करके मार डाली गई एक बाघिन 'अवनी' की कहानी है। उसके दो शावक थे। उसकी संदेहास्पद स्थिति में हत्या कर दी गई थी। उसे मारने वाला बंदूकधारी दरअसल एक मुसलमान था, जिसका नाम नवाब असगर अली था। असगर के पिता शफात अली पर जीव हत्या के कई मुकदमे भी दर्ज थे। असगर अली ने भी बाघिन को धोखे से मारा था जबकि सरकारी तौर पर बाघिन को मारने के आदेश नहीं दिए गए थे। फ़िल्म में उस उद्दंड शिकारी का नाम असगर अली की जगह 'रंजन राजहंस' उर्फ 'पिंटू भैया' रखा गया है। फ़िल्मों में अपने एजेंडे के अनुरूप बदलाव करने में सेकुलर लॉबी बहुत शातिर तरीके से काम करती है।
हिन्दुओं के प्रति नफरत उपजाने का मसाला इतनी कलाकारी से पटकथा में डाला जाता है कि दर्शक को पता भी नहीं चलता कि इस तरह हमारी युवा पीढ़ी के दिमाग में जहर भरा जा रहा है।आम दर्शक तो फ़िल्म देखने के बाद 'पिंटू भैया' को ऐसा व्यक्ति ही समझेगा जो अपने शौक के लिए शिकार करता है। अगर उसकी जगह असगर अली नाम होता तो निर्माता को शायद मुसलमानों की नाराज़गी मोल लेनी पड़ती। इतना ही नहीं, फ़िल्म में बाघिन को बचाने वाली महिला वन अधिकारी ईसाई दिखाई गई है, जिसकी मदद करने वाला प्रोफेसर मुसलमान है, जबकि असल कहानी में दोनों हिन्दू थे।
ऐसा क्यों है कि ये सेकुलर फिल्मकार जानबूझकर हिन्दू मान-बिंदुओं को आहत करते हैं। बहुत विरोध होने पर कुछ ही मामलों में कुछेक दिखावटी बदलाव कर लेते हैं। दरअसल इनका एजेंडा ही हिन्दू विरोध है, इसके लिए तथ्यों को मनमाफिक घुमाकर बहुत महीन तरीके से दर्शकों के दिमाग में हिन्दुत्व की गलत छवि बना देते हैं। इससे इनका सेकुलरपन तुष्ट होता है।
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