सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज का कहना है कि अधिकांश मीडिया तो बिकाऊ, बेशर्म, चाटुकार, गोदी मीडिया हो गई है। उसकी तो बात करना ही फ़िज़ूल है। लेकिन उस मीडिया के बारे में क्या कहा जाए जो अपने को स्वतंत्र कहती है? क्या वह भारत की जनता को वैचारिक नेतृत्व दे रही है, जो उसकी ज़िम्मेदारी है, ताकि एक उज्जवल भारत का निर्माण हो सके? कतई नहीं।
दिल्ली। मीडिया की मुख्य भूमिका होती है जनता को घटनाओं की सही जानकारी देना। इसके अलावा उसकी यह भी ज़िम्मेदारी होती है कि जनता को उज्जवल जीवन पाने की दिशा दिखाए और वैचारिक क्षेत्र में जनता को सही नेतृत्व प्रदान करे।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से मीडिया का उदय पश्चिमी यूरोप में 18वीं सदी में हुआ। उस समय सारे सत्ता के उपकरण सामंती शासकों (राजा, जमींदार और उनके नुमाइंदों) के हाथों में थी। इसलिए जनता को ऐसे उपकरणों का निर्माण करना पड़ा जो उनकी नुमाइंदगी कर सके और उनकी हितों की रक्षा कर सके। इन उपकरणों में मीडिया एक शक्तिशाली उपकरण था, जिसका बहुत प्रयोग यूरोप में हुआ। महान लेखक जैसे वोल्तेयर (Voltaire), रूसो (Rousseau), थॉमस पैन (Thomas Paine) आदि ने मीडिया द्वारा (जो उस समय पर्चों, लघुपत्रों आदि के रूप में थी न कि दैनिक समाचार पत्रिकाओं के रूप में) सामंती व्यवस्था पर करारा प्रहार किया और आधुनिक समाज के निर्माण में बड़ा योगदान दिया।
आज भारत बड़े संकट में है- भीषण ग़ुरबत, बेरोज़गारी, कुपोष, स्वास्थ लाभ और अच्छी शिक्षा का अभाव के शिकंजे में। इन समस्याओं से निजात पाने के लिए मीडिया भी बड़ा योगदान कर सकती है और खुशहाल भारत के निर्माण में बड़ी मदद कर सकती है। जैसा कि 18वीं सदी की यूरोपी मीडिया ने किया, पर क्या वह ऐसा कर रही है? अधिकांश मीडिया तो बिकाऊ, बेशरम, चाटुकार और गोदी मीडिया हो गयी है। उसकी तो बात करना ही फ़िज़ूल है। मगर उस मीडिया के बारे में क्या कहा जाए जो अपने को स्वतंत्र कहती है? क्या वह भारत की जनता को वैचारिक नेतृत्व दे रही है, जो उसकी ज़िम्मेदारी है, ताकि एक उज्जवल भारत का निर्माण हो सके? क़तई नहीं।
मीडिया का एक वर्ग लगातार मोदी और बीजेपी की निंदा कर रहा है। मैं कोई बीजेपी या मोदी का समर्थक नहीं हूं, मगर मैं ऐसे मीडिया से सवाल करना चाहता हूं कि क्या वे इस बात का ध्यान रख रहे हैं कि मोदी और बीजेपी अगले चुनाव में हार गए तो कौन उनकी जगह देश की बागडोर संभालेगा।
कांग्रेस पार्टी? वह तो मां बेटे के अलावा कुछ नहीं है या फिर विपक्षी पार्टियों की साझा सरकार? मगर ऐसी सरकार बनने पर (या उससे भी पहले) यह झगड़ा शुरू हो जाएगा कि मलाईदार मंत्रालय किस पार्टी को मिले। यानी इस बात पर झगड़े होंगे कि कौन लूट का बड़ा भागीदार होगा। सरकार बनने के बाद भी यही झगड़े होते चलेंगे। 1977 में आपातकाल ख़त्म होने के बाद जनता पार्टी केंद्र में सत्ता में आयी। यह वास्तव में कई पार्टियों की मिली जुली साझा सरकार थी। शीघ्र ही इस सरकार में आपसी झगडे शुरू हो गए और अंततोगत्वा इसका 1980 में पतन हो गया। यही हश्र होगा अगर फिर से साझा सरकार बनेगी।
स्वतंत्र मीडिया के नाम पर सत्तारूढ़ बीजेपी की आलोचना तक सीमित रहने वाली मीडिया जनता को यह नहीं बताती कि मौलिक परिवर्तन के लिए राजनैतिक दल बदलने से कुछ न होगा, बल्कि सारी व्यवस्था ही बदलनी होगी। ऐसा करने के लिए एक महान एकजुट ऐतिहासिक क्रांतिकसरी जनसंघर्ष करना होगा, जाति और धर्म की दीवारों को तोड़कर बड़ी क़ुर्बानियां देनी होंगी, और ऐसी राजनैतिक व्यवस्था का निर्माण करना होगा जिसके अंतर्गत तेज़ी से औद्योगीकरण हो और जनता को अच्छा जीवन मिले।
अलबत्ता हमारी तथाकथित ‘स्वतंत्र’ मीडिया ऐसा कभी नहीं करती, बल्कि जो लोग इन विचारों को व्यक्त करना चाहते हैं उनके विचारों को जगह भी नहीं देती। तो यह मीडिया क्या वास्तव में स्वतंत्र है?
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