कोविड-19 की दूसरी लहर पहली के मुकाबले ज्यादा भयानक है। ये लोग महसूस कर रहे हैं और भारत के लिए ये ज्यादा बड़ी चुनौती इसलिए भी है क्योंकि हमारे देश का शासकीय मॉडल न तो साम्यवाद की तरह सूचनाएं छिपाने, मानवाधिकारों को कुचलने का काम कर सकता है और न ही पूंजीवाद की तरह केवल पैसे के बारे में सोच सकता है।
कोविड-19 की दूसरी लहर पहली के मुकाबले ज्यादा भयानक है। ये लोग महसूस कर रहे हैं और भारत के लिए ये ज्यादा बड़ी चुनौती इसलिए भी है क्योंकि हमारे देश का शासकीय मॉडल न तो साम्यवाद की तरह सूचनाएं छिपाने, मानवाधिकारों को कुचलने का काम कर सकता है और न ही पूंजीवाद की तरह केवल पैसे के बारे में सोच सकता है। ऐसे में पारदर्शिता, संवेदनशीलता, मानवीय मूल्य हमारी प्राथमिकताएं हैं और हमें इस कठिन समय में इन आदर्शों को लेकर चलना है। ये सरल समय नहीं है।
दोहरी चुनौती
ये वह समय है जब समाज और सरकारें दो तरह की चुनौतियों से गुजर रही हैं। सरकार को प्रशासन और प्रबंधन के साथ-साथ राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोपों से भी जूझना है। वर्तमान सरकार पर विरोधियों के आरोप-प्रत्यारोप, हर बात में सरकार पर दोषारोपण करना पिछले कुछ वर्षों से भारतीय राजनीति के स्थाई चरित्र हो गये हैं। देश में कठिन संकट के समय राजनीतिक ताकतों में जो सहयोग होना चाहिए, वह भाजपा विरोध के कारण विरोधी पक्ष नहीं कर रहा है। यह दिख रहा है कि अपनी कमी को छिपाने के लिए राजनीतिक विरोध को औजार बनाया जा रहा है।
जब समाज व्यथित है, परेशान है, आक्रोशित भी है, तब कई राजनीतिक दलों के बयानों और उनके ट्विटर हैंडिलों पर देश को दिलासा देने वाली बातों के बजाय गलत सूचनाएं, भ्रामक सूचनाएं और आक्रोशित करने वाले वक्तव्य जारी होते रहे हैं। ये एक चिंता की बात है। कोई बात चाहे देश को कितना नुकसान पहुंचाए, समाज को कितना नुकसान पहुंचाए या कितनी भी पीड़ादायक हो, राजनीतिक लाभ लेना ही संभवत: विरोधी दलों के जीवन का यथेष्ट रह गया है। वे इससे आगे नहीं सोच पा रहे हैं। राजनीति का यह रूप त्रासद है।
धूर्तताओं से बचने की चुनौती
समाज के सामने चुनौती यह है कि उसे अपनी पूरी संवेदनशीलता के साथ दुखियों को संभालने के लिए खड़ा होना है परंतु उनका पाला कदम-कदम पर ऐसे लोगों से भी पड़ रहा है जो इस कठिन समय में भी धूर्तता और मुनाफाखोरी में डूबे हुए हैं। समाज की संवेदनशील शक्तियों को कदम-कदम पर एक जरूरी इंजेक्शन में पानी भरकर बेचने वालों, आक्सीजन की जगह खाली सिलिंडर देने वालों, आॅक्सीजन की कालाबाजारी करने वालों, अस्पतालों में बेड के नाम पर वसूली में लगे तंत्र जैसी धूर्तताओं से जूझना पड़ रहा है। यह परीक्षा की घड़ी है।
पहली लहर के समय किसी ने कल्पना नहीं की थी कि भारत इस पर नियंत्रण पा लेगा। हथियार के सबसे बड़े निर्यातकों ने नहीं सोचा था कि बीमारी से लड़ने का हथियार वैक्सीन बनाने में भारत जैसा देश सबसे आगे आ जाएगा। भारत ने यह कर के दिखाया है। सबसे अच्छी बात यह है कि टीकाकरण के बाद लोगों में संक्रमण की दर बहुत कम है। इसलिए सबसे बड़ी आशा की किरण टीकाकरण के रूप में दिखाई देती है। अब इतने बड़े देश का टीकाकरण सबसे बड़ी चुनौती है। अब भारत को उन राजनेताओं को किनारे कर के आगे बढ़ना चाहिए जो भारत की वैक्सीन, वैक्सीन की गुणवत्ता और टीकाकरण की सरकार की मंशा पर सवाल उठाने में अधिक व्यस्त हैं।
हम त्रासदी देख रहे हैं, गमी का सैलाब देख रहे, मदद के लिए उठे हाथ भी देख रहे हैं। परंतु एक प्रश्न स्वयं से पूछने का है कि क्या हमारे देश में ऐसे लोग हैं जिनका हमेशा से विमर्श रहा है कि केंद्र और राज्य लड़ते रहें, निजी और सार्वजनिक क्षेत्र लड़ते रहें, समाज में अगड़ा और पिछड़ा लड़ते रहें।
भविष्योन्मुखी योजना
परंतु इसके साथ ही भविष्योन्मुखी योजना के खाके की आवश्यकता भी है। यह जल्द से जल्द आना चाहिए। कोरोना के वाइरस के अधिक खतरनाक म्यूटेंट सामने आ रहे हैं। सिर्फ कोरोना ही नहीं, बल्कि अन्य स्वास्थ्य आपदाएं भी किसी बड़े राष्ट्र को कैसे संकट में डाल सकती हैं, यह हमने देखा। इसलिए केंद्र और राज्य सरकारों को व्यापक दृष्टि से सोचते हुए सार्वजनिक स्वास्थ्य की भविष्योन्मुखी योजना का खाका खींचना होगा, बजट के ठीक प्रावधान करने होंगे और केंद्र्र-राज्य के समन्वय के उन बिंदुओं को, जहां बचकानी बातें होती हैं, उन्हें दुरुस्त करना होगा। यह करना होगा कि जहां राष्ट्रीय आपदा का प्रश्न हो, वहां राजनीतिक लाभ-हानि का विषय न बनाते हुए सबको एक लाइन में चलना होगा, राजनीति को पीछे छोड़ना होगा।
हमें इसमें भ्रमित करने वाले विमर्शों को किनारे रखना पड़ेगा। कुछ लोग अपनी राजनीतिक लिप्साओं के चलते इस देश के पूंजीपतियों के विरुद्ध खड़े हैं। हमें यह सोचना होगा कि आज जो टाटा कर रहा है या जो रिलायंस कर रहा है और इस तरह की तमाम कॉरपोरेट कंपनियां कदम उठा रही हैं, देश में आस्था को दिशा देने वाला तंत्र या संत समाज क्या कर रहा है, इन्हें चुनौती देने वालों की मंशा क्या है? हमें समझना होगा कि निजी क्षेत्र भी समाज के लिए बहुत आवश्यक है। देश का निजी क्षेत्र इस संकट के समय कदम से कदम मिलाकर चल रहा है। इनके बिना न आॅक्सीजन का उत्पादन हो सकता है न दवाओं का निर्माण हो सकता है।
हमारा दायित्व
सरकार ने स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाने के लिए पिछले एक वर्ष में कई सारे कार्य किये हैं। अब इस काम के साथ हमारा दायित्व यह भी बनता है कि यदि परेशानी का समय आया ही है तो सरकार अपने प्रबंधन में तालमेल बनाये और समाज परस्पर समन्वय और अपना मानसिक संतुलन बनाये रखते हुए अफवाहों में न आये, बहकावे में न आये और घबराये नहीं। हमें समझना होगा कि घर में रहकर हम कैसे उपचार कर सकते हैं, अस्पताल में भर्ती होने की आवश्यकता कब है, अस्पताल में भी सिर्फ आॅक्सीजन से हमारा काम कब चल सकता है, आईसीयू बेड कब आवश्यक होते हैं, सभी को अस्पताल या आॅक्सीजन या आईसीयू की आवश्यकता नहीं है। ये समझना होगा।
दूसरा, कुछ इंजेक्शन को लेकर भ्रम है। कुछ इंजेक्शन को मान लिया गया है कि वे कोविड-19 से निपटने के लिए रामबाण हैं। जैसे रेमेडिसिवर के बारे में हल्ला हुआ, उसकी किल्लत हुई, उसकी कालाबाजारी होने लगी और लोग घबराहट में दौड़ने लगे। यह वाइरस लोड कम करता है, यह बीमारी का उपचार नहीं है। कई और वैकल्पिक दवाएं हैं जो राहत दे सकती है, जिन्हें डॉक्टर से पूछना है। व्हाट्सऐप ग्रुप या आपसी परामर्श या किसी मरीज को लिखी गयी एक ही पर्ची को बार-बार घुमाने से समाज में घबराहट बढ़ती है। यह समझना समाज का काम है, यहां सरकार का काम नहीं है। यह समय है जब राज्य और केंद्र के बीच समन्वय का समय है, समाज में जो परेशानी में हैं और जो उन्हें ठीक कर सकते हैं, उनके बीच में संवेदनशीलता और समन्वय का ये समय है। यदि हम मिलकर लड़े तभी इस परीक्षा को हम पार कर पायेंगे।
इस अंक में हमने समाज की उन सकारात्मक शक्तियों को सामने लाने का काम किया है, जो इस त्रासदी के समय में, परीक्षा की घड़ी में कमर कस कर खड़ी हैं। जैसा हमने पिछली लहर के समय करके दिखाया था, इस बार यद्यपि आघात बड़ा है, परंतु समाज के विभिन्न अंगों की कोशिशों से लगता है कि इस बार भी हम कुछ बड़ा करके दिखाएंगे। यह तय है कि भारत चोट खाकर गिर जाने वाल नहीं है, बल्कि आघात से सबक लेकर आगे बढ़ने वाला देश है।
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