भगवान श्रीराम परम ब्रह्म हैं तो माता सीता मूल प्रकृति
जीवन में सुख समृद्धि लाती हैं बल्कि कल्याण की ओर अग्रसर भी करती है माता सीता
आचार्य पं. शरद चंद्र मिश्र के अनुसार माता सीता की उत्पत्ति वैशाख शुक्ल नवमी को मध्याह्न में हुआ था। पहली मई को मध्याह्न में नवमी होने से इसी दिन माॅ सीता का अर्चन, पूजन और उनके निमित्त व्रतार्चन इत्यादि सम्पन्न होगा। सीता जी प्रकृति की पर्याय हैं। भगवान राम परम ब्रह्म हैं तो माता सीता मूल प्रकृति हैं। प्रकृति में ही परम ब्रह्म समाहित हैं। ब्रह्म प्रकृति को अपना आधार स्थापित कर ब्रह्मांड रूपी रंगमंच पर अपनी लीला का आयोजन करता रहता है। वैसे ब्रह्म निषकल और निराकार है परन्तु प्रकृति से मिलकर संसार की संसृति करता रहता है। सीता के विषय में कहा जाता है कि पृथ्वी के गर्भ से उत्पन्न हुई है। वह प्रकृति की उपादान कारण है या यों कहे कि वह मूल प्रकृति है। सीता जी का जन्म धरती के गर्भ से हुआ था इसीलिए वह माॅ अन्नपूर्णा के नाम से भी जानी जाती हैं। उनकी कृपा न केवल मनुष्य के जीवन में सुख समृद्धि लाती हैं बल्कि उनके जीवन को कल्याण की ओर अग्रसर भी करती है।
सीता नवमी का व्रत मुख्यतः सुहागिन स्त्रियां ही करती है परन्तु धर्मशास्त्र के अनुसार इस व्रत को सभी सम्पन्न कर सकते हैं। स्त्रियाॅ मुख्यतः इस उद्देश्य से करती, ताकि इस व्रत से उन्हे माता सीता जैसी गुणों की प्राप्ति हो और उनके दाम्पत्य जीवन में सुख का संचार हो। उत्तरी भारत में यह व्रत इसी तिथि के दिन परन्तु देश के कुछ सम्भागों मे इसे फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को सम्पन्न करते हैं।
पूजा विधि विधान
वैष्णव भक्त के अतिरिक्त अन्य सम्प्रदाय के लोग भी इसी शुक्ल नवमी के दिन व्रत रखकर पूजा पाठ का आयोजन करते हैं। इस व्रत की तैयारी एक दिन पूर्व से ही किया जाता है ।एक छोटा सा मण्डप बनाकर उसमें सीता माता के सहित समस्त राम- परिवार एवं राजा जनक और शतानन्द इत्यादि की भी मूर्ति या चित्र स्थापित कर अर्चन किया जाता है ।पूर्व दिन ही साफ- सफाई कर पूजन की समस्त सामग्री रख ली जाती है। राम- जानकी तथा राम परिवार के समस्त देवगणों की पूजा एक साथ की जाती है। विभिन्न प्रकार के फल और प्रसाद से भोग लगाया जाता है। नवमी को विधिवत पूजन कर दशमी को मण्डप का विसर्जन किया जाता है।
व्रत कथा
एक बार मिथिला राज्य में बहुत वर्षों से बारिश नही हो रही थी। वर्षा के अभाव में मिथिला के राजा और प्रजा बहुत चिंतित थी। उन्होंने ऋषियों से इस विषय पर मन्त्रणा की तो उन्होंने ने कहा कि यदि राजा जनक स्वयं हल चलाये तो इन्द्र देव प्रसन्न होकर वृष्टि करेंगे।राजा जनक ने ऋषियों की बात मानकर हल चलाया। हल चलाये समय उनके हल एक कलश से टकराया जिसमें एक सुन्दर कन्या थी ।राजा निःसंतान थे इसलिए बहुत हर्षित हुए और उस कन्या का नाम सीता रखा।
दूसरी कथा के अनुसार
सीताजी के जन्म से जुड़ा एक रहस्य यह भी है कि सीता राजा जनक की पुत्री न होकर रावण की पुत्री थी। इसके पूर्व कथा प्रचलित है कि सीता वेदवती का पुनर्जन्म थी। वेदवती एक सुन्दर कन्या थीं और विष्णु की उपासक थीं। साथ ही वेदवती भगवान विष्णु से विवाह करना चाहती थी। इसके लिए उस सुन्दर कन्या ने कठिन तपस्या की और जंगल में कुटिया बनाकर रहने लगी। एक दिन जब वेदवती तपस्या कर रही थी तभी रावण वहाॅ से गुजरा और उन्हे परेशान करने लगा। इससे दुःखी होकर वेदवती हवन कुण्ड में कूद गयी। उन्होंने रावण को शाप दिया कि मैं अगले जन्म में तुम्हारी पुत्री बनकर जन्म लूंगी और तुम्हारी मौत का कारण बनूंगी। इसके बाद मन्दोदरी और रावण के वहाॅ एक पुत्री ने जन्म लिया। रावण ने क्रुद्ध होकर उसे गहरे समुद्र में फेंक दिया। उस कन्या को देखकर सागर की देवी वारूणी बहुत दुःखी हुई। वारूणी ने उस कन्या को पृथ्वी माता को दे दिया। धरती की देवी ने इस कन्या को राजा जनक और उनकी पत्नी सुनैना को दिया। इस प्रकार सीता धरती की गोंद से राजा जनक को प्राप्त हुई थी ।जिस प्रकार सीता माता धरती से प्रकट हुई इसी प्रकार उनका अन्त भी धरती में समाहित होकर हुआ था।
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