वीरांगना श्री राणीसती दादी की अमर गाथा



  • या देवी सर्व भूतेशु सति रुपेणी संस्थिता ।

  • नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नारायणी नमोस्तुते ॥


मां नारायणी का जन्म वैश्य जाती के अग्रवाल वंश में हरियाणा में धनकुबेर सेठ श्री घुरसमाल जी गोयल के यहां सं 1338 वि कार्तिक शुक्ला 8 शुभ मंगलवार रात के 12 बजे पश्चात हरियाणे की प्राचीन राजधानी महम नगर के ढोकवा उपनगर में हुआ था।



  • संवत् तेरह सौ अड़तीस कार्तिक शुक्ल मंगलवार।

  • बारह बजकर दस मिनट, आधे रात लिया अवतार|


सेठ घुरसमाल महाराजा अग्रसेन जी के सुपुत्र श्री गोंदालाल के वंशज थे। गोयल गोत्र के थे। सेठ जी महम के तो नगर सेठ थे हे लेकिन उस समय, इनकी ख्याति व सम्मान दिल्ली के बादशाहों तक थी। उन दिनों एक तरह से दिल्ली का शासन मह्वालों की अच्छी पैठ थी। महम काफी समृद्ध था। दिल्ली-हिसार (ग्रांड ट्रंक) सड़क पर सैंकड़ो महल, मन्दिर, मकबरे, मस्जिद. भवनों के खंडहर दोनों तरफ आज भी है जो महम की समद्धता का बखान करते हैं। इनका नाम नारायणी बाई रखा गया था। ये बचपन में धार्मिक व सतियों वाले खेल सखियों के साथ खेला करती थीं। कथा आदि में विशेष रुचि लेती थीं। बड़ी होने पर सेठजी ने इन्हे धार्मिक शिक्षा, शस्त्र शिक्षा, घुड़सवारी आदि की भी शिक्षा दिलाई थी। इन्होंने इनमें प्रवीणता प्राप्त कर ली थी। उस समय हरियाणा में ही नहीं उत्तर भारत में इनके मुकाबले कोई निशानेबाज बालिका तो क्या, कोई पुरुष भी नहीं था।



  • बचपन का शील स्वभाव निरव, पित-मात स्वजन हर्षाते थे।

  • कल का ये मान बढायेगी, मंतव्य सभी दर्शाते थे।


बचपन में ही ये अपने चमत्कार दिखलाने लगी थी। एक डाकिन (पुराने जमाने में बच्चे खाने वाली एक औरत) महम नगर में आया करती थी। इनकी सुन्दरता की ख्याति सुनकर डाकिन एक दिन आई। इन पर हमला करने की तो हिम्मत नही पड़ी, उनके तेज के कारण डाकिन अंधी हो गई, लेकिन इसके बावजूद डाकिन इनकी सहेली को उठाकर ले जाने लगी भय के कारण सहेली बेहोश हो गई। परंतु नारायणी जी भयभीत नहीं हुईं वे तुरंत डाकिन के पास पहुंच गई और अपनी सहेली को छुड़ाने के साथ ही जीवित किया। डाकिन इनका ये चमत्कार देखकर डर गई। उसने हाथ जोड़कर क्षमा मांगी और प्रतिज्ञा की कि आगे से मै बच्चे नही खाया करूंगी। इन्होंने उसे क्षमा किया और उसकी आंखे भी ठीक कर दी। इस तरह आपने अनेकानेक चमत्कार बचपन में दिखाए। इनका विवाह अग्रवाल कुल शिरोमणि हिसार राज्य के मुख्य दीवान स्वनाम धन्य सेठ श्री जालानदास जी बंसल के सुपुत्र श्री तनधनदास जी के साथ मंगसिर शुक्ला 8 सं. 1351 मंगलवार को महम नगर में बहुत ही धूमधाम से हुआ था। इनके पिता श्री ने जो दहेज़ दिया था उसमे हाथी, घोडे, ऊंट, घोड़े और सैकड़ों छवड़े सामान से भरे हुए दिये थे। सबसे विशेष वस्तु एक श्यामकर्ण घोड़ी थी। उस काल में उत्तर भारत में यही केवल एक श्यामकर्ण घोड़ी थी। उस समय हिसार का नवाबी राज्य आजकल के हरियाणा प्रदेश से बड़ा था। उसी नवाबी राज्य हिसार के श्री जालानदासजी मुख्य दिवान थे । इनकी न्यायप्रियता की धाक दूर-दूर तक राज्यों में थी। ये चतुर व कर्मठ दादी राणीसती शासक थे। विवाह के पश्चात श्री तनधनदास जी सायंकाल अपनी ससुराल वाली घोड़ी पर सैर करने हिसार में जाया करते थे। नवाब के पुत्र शहजादे को दोस्तों ने भड़काया कि जैसी घोड़ी दिवान के लड़की के पास है ऐसी तेरे राज्य में नहीं है। शहजादा तो घोड़ी देखकर पहले से हे जला भुना बैठा था। दोस्तों कि बातो ने आग में घी का काम किया। शहजादा तुंरत नवाब साहब के पास गया और घोड़ी लेने की हठ की। नवाब ने दिवान साहब को बुलाकर घोड़ी मांगी। दीवानजी ने कहा-मालिक ये घोड़ी मेरी नहीं है। लड़के को ससुराल से मिली है। वह घोड़ी नहीं देंगे। आप क्षमा करें। समय व संस्कार की बात है। नवाब ने घोड़ी छीनने का प्रयत्न किया। संघर्ष में बहुत से सैनिक सेनापति सहित मारे गये।



  • भाग दौड़ पल्टन गई, कहा नवाब सन जाय।

  • सेनापति रण रखेत में, दिये प्राण गवांय।।


यह देखकर नवाब ज्यादा निराश हो गया और दोस्तों की बातों में आकर दिवानजी की हवेली से घोड़ी लाने आधी रात को गया। नया आदमी देखकर घोड़ी हिनहिनाने लगी। जाग हो गई। श्री तनधन जी सांग (भाला) लेकर उस ओर चले। तब लक्ष साध कर शब्द-भेद । तन धन ने उठा फेकी॥ इक चीरव उठी, हो गया ढेर। इक मनज देह गीरती देरिव॥ सांग के एक वार में ही नवाबजादा मारा गया। दीवानजी ने मिलकर विचार किया और तुरन्त हिसार छोड़कर झुंझनू-नवाब के पास जाने का निर्णय किया। क्योकि हिसार और झुंझनू के नवाबो की आपस में लड़ाई व शत्रुता थी। रातों रात हिसार से परिवार सहित दीवानजी चल पड़े। उधर सुबह होने पर नवाब ने शहजादे को महलों में नहीं देखा। चारों ओर तलाश की गई। अंत में दीवानजी की हवेली से शहजादे की लाश लायी गई। नवाब के महल में कोहराम मच गया। नवाब ने सेना को तुरन्त दीवान को पकड़ लाने का आदेश दिया। सेना चारों और चल पड़ी, उत्तर की और जाने वाली सेना ने लुहारू के पास दिवानजी को जाते हुए देखा। लेकिन तब तक दीवान सपरिवार झुंझनू राज्य की सीमा में प्रवेश कर चुके थे। हिसारी सेना की ताकत झुंझनू सेना से टक्कर लेने की नहीं थी, सेना निराश होकर हिसार लौट आई। नवाब सब सुनकर सिर पीटकर रह गया।



  • प्रस्तुति : सिमरन द्वारा   -शेष अगले अंक में... 


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