-महागुरु गोरक्षनाथ प्रभु भी भगवान शंकर की तरह अजन्मे है, ये अपने मूल रूप में समस्त ब्रम्हाण्ड में विद्यमान हैं
मंत्र, माला व मूर्ति तीन वस्तुयें कभी नहीं बदलनी चाहिए : बापू
गोरखपुर। गोरखनाथ मन्दिर व रामकथा प्रेम यज्ञ समिति के तत्वावधान में रविवार को तारा मंडल स्तिथ चंपा देवी पार्क में आयोजित नौ दिवसीय रामकथा में मुख्य विषय 'मानस जोगी' के उद्घोष मंत्रोचारण के साथ दूसरे दिन की रामकथा का शुभारंभ करते हुये मोरारी बापू जी ने बजरंग बली की मंगल स्तुति के साथ की
''मंगल भवन, अमंगल हारी,
द्रवउ सो दशरथ अजिर बिहारी''
चौपाई के साथ महायोगी भगवान भोलेनाथ के महायोगी रूप की स्तुति करते हुये कहा कि-
हमरे जान सदा शिव जोगी।
अज अनवघ अकाम अभोगी।।
एहि जग जामिनि जगहिं जोगी।
परमारथी प्रपंच वियोगी।।
अर्थात परम योगी महादेव के अवतार प्रभु गोरक्षनाथ भी अजन्में हैं, जैसे की स्वयं भगवान शंकर अजन्मे है। इनका जन्म नहीं होता ये समस्त ब्रम्हाण्ड में अपने मूल रूप में विद्यमान हैं।
आज गुरू गोरक्षनाथ के उत्पत्ति स्थल को लेकर विद्वानों में बड़ा विवाद है, किसी ने भगवान गोरक्षनाथ को इधर प्रकट किया तो, किसी ने उधर प्रकट किया। परन्तु सारे लोग उन्हें हृदय में प्रकट करना भूल गये।
सात्विक एवं तात्विक चर्चा करते हुए बापू ने कहा कि जिस प्रकार से भक्त, भक्ति, भगवान और गुरू के नाम में भेद है, परन्तु तत्वतः ये सभी एक ही है। वैसे ही मानस में प्रभु श्रीराम का नाम, राम की कथा, स्वयं भगवान राम तथा भरत जी एक ही है, केवल नाम में भेद है।
जो कार्य प्रभु श्रीराम ने त्रेता युग में किया, वही कार्य हमारे लिए कलयुग में श्रीराम की कथा व राम का नाम कर रहा है। अतः ये कलयुग नही, बल्कि कथा युग है।
जब चतुराई रहित बुद्धि में हरि की करूणा आएगी, तब हम आप ऐसे ही रूपांतरित होगें। भारत जैसा चितंन कही नही हुआ, भारत जैसा सदग्रन्थ कहीं नहीं है। बापू ने रामचरित मानस के बारे में भक्तों को बताया कि रामायण की रूप रेखा यहीं से शुरू होती है। धार्मिक दृष्टि से रामायण के बालकाण्ड अत्यन्त महत्वपूर्ण है। बापू ने कथा के दौरान बताया कि हृदय में राम विराजमान है। कागभुसुण्ड़ी को तुलसीदास जी ने सुशील कहा था, क्योंकि कागभुसुण्ड़ी कथा व मंगलाचरण कर रहे थे, तभी गरूड़ देव पधारे। कागभुसुण्ड़ी जी ने कथा बीच में छोड़ दी और गरूड़ देव का स्वागत किया, इससे उनकी सुशीलता का बोध होता है। 108 स्मृतियां है, लेकिन ज्ञानी लोग चार को महत्व देते है।
हमारे पास आज भगवान स्वयं नही है, परन्तु हमारे पास एक रास्ता है उनसे संवाद करने का, वो है- प्रभु श्रीराम का नाम?
बापू ने इस वृृतांत को गोरक्ष परंपरा से जोड़ते हुये कहा कि जिस प्रकार शिव, हनुमान, भरत और स्वयं राम एक है, उसी प्रकार गोरक्ष परंपरा में मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ, सिद्ध व नाथ नाम चार है, परन्तु तत्व एक ही है। पूरी नाथ परंपरा का मूल तत्व भगवान महादेव है।
गुरू गोरक्षनाथ स्वयं महादेव के अवतार हैं। महादेव ने योग मार्ग का प्रचार-प्रसार करने के उद्देश्य से गोरखनाथ का अवतार धारण किया था। योग की जितनी विधियां गोरक्षनाथ ने खोजी है, अन्य किसी ने नहीं खोजी हैं।
बापू ने कथा को विस्तार देते हुये कहा कि आज विश्व को एक ऐसे योगी की आवश्यकता है जो गुफाओं-कन्दराओं में बैठकर तपस्या करते न हो, बल्कि ऐसे योगी की जरूरत है, जो सदाशिव हो और सदैव विश्व कल्याण करता हो।
उन्होने कथा के दौरान नाथ परंपरा और गोरक्षनाथ की उत्पत्ति पर प्रकाश डालते हुये कहा कि- एक गरीब ब्राह्मणी, जिसके कोई पुत्र नहीं था। उसने गुरू मत्स्येन्द्रनाथ से प्रार्थना किया कि हे प्रभु मुझे वरदान दे कि मुझे पुत्र की प्राप्ति हो। गुरू मत्स्येन्द्रनाथ ने ब्राह्मणी को अपने यज्ञ कुण्ड से भस्म निकाल कर दिया और कहा कि तुम इसका सेवन करो तुम्हें महादेव जैसा पुत्र प्राप्त होगा। परन्तु लोकलाज व निन्दा के डर से ब्राह्मणी ने भस्म को अपने घर के समीप गोबर में समाहित कर दिया। गोरक्ष चरित्र में कहा गया है कि बारह वर्ष के उपरान्त जब गुरू मत्स्येन्द्रनाथ ब्राह्मणी के कुटिया पर उसके पुत्र के दर्शन के लिए पधारे तो उन्हें देखकर ब्राह्मणी संकोच में पड़ गयी । ब्राह्मणी से पुत्र के बारे में पूछने पर बताया कि लोक निन्दा के कारण भस्मरूपी प्रसाद को मैने गोबर के ढ़ेर में फेंक दिया था। तब गुरू मत्स्येन्द्रनाथ ने गोबर के ढ़ेर के पास जाकर आवाज दिया तो बारह वर्ष का एक शिवयोगी उस गोबर के ढ़ेर से निकले। बारह वर्षों तक वह उस ढेर में जागते रहें क्योंकि परमार्थ के कार्य हेतु इस धरा पर उनका अवतरण हुआ।
कथा के दौरान श्रद्धालुओं के बीच से एक प्रश्न पूछा कि जब प्रभु श्रीराम के इच्छा के बिना एक पता भी नहीं हिलता, और जो हम करते है वो भी प्रभु के इच्छा से ही करते है तो उस कार्य के लिए हम क्यों उत्तरदायी होते है।
इस प्रश्न का उत्तर देते हुए बापू ने कहा कि
जनम हेतु सब कहं कितु माता।
करम सुभासुभ देई विधाता।।
अर्थात सभी के जन्म का कारण माता-पिता होते हंै और सभी के शुभ-अशुभ कर्मों का फल विधाता देते है। हमें फल की चिंता किये बिना अपना कर्म करना चाहिए। क्योंकि राम परीक्षा का नहीं प्रतिक्षा का विषय है। यदि प्रमाणिक प्रयत्नों को करने के बाद भी इच्छित फल की प्राप्ति ना हो तो हमें उदास अथवा कुण्ठित नहीं होना चाहिए, क्योंकि गोस्वमी तुलसीदास ने मानस में कहा है कि -
होईहि सोइ जो राम रचि राखा।
को करि तर्क, बढ़ावै साखा ।।
अर्थात जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा।
बापू ने कहा कि यदि परम तत्व से कुछ मांगना है तो भक्ति मांगो ताकि समस्त संसार में भक्ति बांट सको। गुरू अपने शिष्य को ऐसी दृष्टि प्रदान करता है। जिसे शिष्य अपना मार्ग स्वयं चुन सके।
उन्होंने कहा कि ईश्वर निराकार व साकार दोनो है। हरिनाम एक गोरखधन्धा है। गोरखधन्धा का अर्थ है- ईश्वर निराकार भी है, साकार भी है। आपकी साधना अगम-अगोचर है।
2500 वर्ष पूर्व महात्मा बुद्ध ने कहा था कि-
बुद्ध शरणम् गच्छामि
धम्मम शरणम् गच्छामि
स्ंाघम शरणम् गच्छामि
परन्तु आज के परिपेक्ष में हम सबके लिए यह उपयुक्त है कि-
शुद्धंम् शरणम् गच्छामि।
अर्थात शुद्ध व्यक्तियों, महात्माओं के शरण व संगति में जाओ।
संगम शरणम् गच्छामि।
अर्थात जहां ऐेसे लोगो का संगम हो जो लोगो को तोड़ते नहीं, जोड़ते हैं। उनकी शरण में जाओ।
धन्याम शरणम् गच्छामि।
अर्थात जिनका जन्म धन्य हो गया हो उनकी शरण में जाओ। वह धन अच्छा है, जो दान में जाता है। वह देश धन्य है, जहां गंगा बहती है। उल्टे राम नाम के जप से वाल्मिकी शुद्ध एवं सिद्ध हो गये।
बापू ने दूसरे दिन के कथा के अंत में बताया कि मंत्र, माला व मूर्ति तीन वस्तुयें कभी नहीं बदलनी चाहिए।
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