कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे उत्तर प्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री गोरक्षपीठाधीश्वर महन्त योगी आदित्यनाथ ने कहा महन्त दिग्विजयनाथ महाराज एवं महन्त अवेद्यनाथ महाराज ने राष्ट्रधर्म को सभी धर्मो से ऊपर माना। उन्होंने माना कि भारत को यदि भारत बने रहना है तो इसकी कुन्जी सनातन हिन्दू धर्म एवं संस्कृति में है। महन्त दिग्विजयनाथ जी महाराज आनन्दमठ की सन्यासी परम्परा के वे साक्षात् प्रतिमूर्ति थे। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में भी तत्कालीन गोरक्षपीठाधीश्वर के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने का आरोप लगा। चैरी.चैरा काण्ड में महन्त दिग्विजयनाथ जी को आरोपित किया गया। ये घटनायें इस बात की प्रमाण है कि गोरक्षपीठ ने उस सन्यासी परम्परा का अनुशरण किया जो मानती रही है जो राष्ट्रधर्म ही हमारा धर्म है। राष्ट्र की रक्षा भी सन्यासी का प्रथम कर्तव्य है। गोरक्षपीठ के पीठाधीश्वरों द्वारा प्रारम्भ की गई यह परम्परा आगे भी निरन्तर चलती रहेगी। श्रीगोरक्षपीठ द्वारा संचालित सभी संस्थायें जहॉ भी जो भी अच्छा हो उसके साथ खड़ी हो और उसके साथ चलें। गोरखपुर विश्वविद्यालय की स्थापना का पूरा श्रेय महन्त दिग्विजयनाथ जी महाराज को है। महन्त दिग्विजयनाथ जी महाराज की पहल और उनके अहर्निश प्रयत्न से ही गोरखपुर में विश्वविद्यालय की स्थापना हो सकी। महन्त दिग्विजयनाथ जी महाराज ने यदि अपने दो महाविद्यालयों सहित पूरी सम्पत्ति विश्वविद्यालय की स्थापना हेतु दान न की होती तो गोरखपुर में विश्वविद्यालय की सपना अधूरा रहता। महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद् के सभी पदाधिकारियों एवं सदस्यों ने महन्त जी के निर्देशन पर अपना पूरा योगदान दिया और आज गोरखपुर उच्च शिक्षा का एक प्रतिष्ठित केन्द्र बना हुआ है। महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद् तबसे अबतक गोरखपुर विश्वविद्यालय को अपनी संस्थाओं की तरह ही संरक्षित एवं सवंर्धित करती रही है।
उन्होनें कहा कि हमारे पूर्व के पीठाधीश्वरों में यह स्पष्ट संदेश दिया है कि व्यक्तिगत धर्म से राष्ट्रधर्म बड़ा है। यदि व्यक्ति का विकास चाहिए तो राष्ट्र का विकास उसकी अनिवार्य शर्त है। समर्थ भारत और समृद्धि की पूरी परिकल्पना भारत के संविधान में निहित है। भारत के अनेक मनीषियों एवं बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने भारत का जो संविधान हमें दिया है वह उसी भारत के निर्माण का आधार है जैसा भारत हम चाहते है। भारत की ऋषि परम्परा एवं भारत के संत परम्परा ने जिस भारत की परिकल्पना प्रस्तुत की है उसे हमे भारत के संविधान में देख सकते है। भारतीय संस्कृति में छुआछूतए ऊॅचनीच जैसी किसी भेदभाव को स्थान प्राप्त नही है और यही बात भारत का संविधान भी कहता है। श्रीगोरखनाथ मन्दिर में सभी पंथों के योगी.महात्मा रहते है। दोनों ब्रह्मलीन महन्त जी महाराज ने हिन्दुत्व को ही श्रीगोरखनाथ मन्दिर का वैचारिक अधिष्ठान बनाया।
उन्होंने आगे कहा कि श्रीगोरक्षपीठ एवं गोरखपुर के वर्तमान स्वरूप के शिल्पी योगिराज बाबा गम्भीरनाथ और उनके तपस्या से पले बढ़े महन्त दिग्विजयनाथ जी महाराज थे। उन्होंने हर क्षेत्र की अपूर्णता को पूर्णता प्रदान की। नाथ सम्प्रदाय के बिखरे योगी समाज को एक किया और उन्हें धर्मए आध्यात्म के साथ.साथ राष्ट्रोन्मुख किया। हिन्दुत्व के मूल्यों और आदर्शो की पुनस्र्थापना के लिए वे राजनीतिक दलदल में कूदे। उन्होंने कहा कि भारत.नेपाल सम्बन्ध पर नेहरू सरकार को बार.बार ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज की सहायता लेनी पड़ी थी। ब्रह्मलीन महाराज के धर्मए राजनीतिए शिक्षाए समाज के सन्दर्भ में विचार आज भी प्रासंगिक है। शिक्षा और स्वास्थ्य की दृष्टि से अति पिछड़े इस पूर्वी उ0प्र0 में उन्होंने शिक्षण.प्रशिक्षण संस्थाओं और तकनीकी शिक्षण संस्थाओं की स्थापना कर हिन्दुत्व आधारित सामाजिक परिवर्तन में अपनी सक्रिय भागीदारी निभायी। अपने समय के वे धार्मिकए सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में एक सशक्त हस्ताक्षर थे। महात्मा गांधी द्वारा खिलाफत आन्दोलन के बाद कांग्रेस की तुष्टीकरण की नीति के विरूद्ध कांग्रेस से अलग होकर राष्ट्रवादी राजनीति का शंखनाद किया। आज गोरखपुर में जो कुछ भी गौरव प्रदान करने वाली चीजें हैं उनमें पूज्य दोनों ब्रह्मलीन सन्तों का सर्वाधिक योगदान रहा। जब वाराणसी में विश्वनाथ जी के मन्दिर में दलितों का प्रवेश वर्जित था तब महन्त दिग्विजयनाथ जी महाराज ने अपने आन्दोलन के माध्यम से मन्दिर का दरवाजा सबके लिए खुलवाया। इसी प्रकार मेरे गुरूदेव परम् पूज्य राष्ट्रसंत ब्रह्मलीन महन्त अवेद्यनाथ जी महाराज ने मीनाक्षीपुरम् में दलितों को सम्मान दिलाने के लिए आन्दोलन किया तथा उनके साथ बैठकर सहभोज कर हिन्दू समाज को जोड़ने का काम किया। महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद की संस्थाएँ दोनों ब्रह्मलीन महंत जी महाराज के सपनों को साकार करने में अपनी पूर्ण सामथ्र्य का उपयोग करें यही उन्हें वास्तविक श्रद्धान्जलि होगी।
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