बसियाडीह माई मंदिर में पूजा-अर्चना की परंपरा सदियों पुरानी

यहां आने से पूरी होती है मनोकामना


महाभारत काल में जब बाहुबली भीम सिद्ध पुरुष बाबा गोरखनाथ को यज्ञ में शामिल होने का न्योता देने आए थे उस समय उन्होंने राप्ती-रोहिणी की संगम स्थली पर स्नान किया और उसके बाद बसियाडीह माई की पिंडी पर पहुंच कर वहां पूजा-अर्चना की। इसके बाद वे यहां से बाबा गोरखनाथ से मिलने के लिए रवाना हुए।



राप्ती-रोहिणी की संगम स्थली के समीप स्थित बसियाडीह माई मंदिर में पूजा-अर्चना की परंपरा सदियों पुरानी है, कहा जाता है कि महाभारत काल में जब बाहुबली भीम सिद्ध पुरुष बाबा गोरखनाथ को यज्ञ में शामिल होने का न्योता देने आए थे उस समय उन्होंने राप्ती-रोहिणी की संगम स्थली पर स्नान किया और उसके बाद बसियाडीह माई की पिंडी पर पहुंच कर वहां पूजा-अर्चना की। इसके बाद वे यहां से बाबा गोरखनाथ से मिलने के लिए रवाना हुए। बसियाडीह मंदिर के पुजारी श्याम सुंदर प्रसाद बताते हैं कि बसियाडीह देवी का वास यहां कब से है, इसका कोई पता नहीं है। जिस क्षेत्र में यह मंदिर है पहले वहां घना जंगल हुआ करता था। इस क्षेत्र के आस पास थारुओं की बस्ती हुआ करती थी और यहां पर बसियाडीह माता का पिंडी था। यहां पर थारु लोग भी आकर माता की पूजा किया करते थे। उन्होंने बताया कि वैसे तो यहां की व्यवस्था उनके कई पुश्त से लोग देख रहे हैं लेकिन उनके बाबा रामधनी के मन में यहां माता की पिंडी के स्थान पर मंदिर बनाने का विचार आया लेकिन उनके समय में यहां मंदिर का निर्माण नहीं हो सका। उनके पिता देवी प्रसाद ने जब यहां व्यवस्था देखना शुरू किया तो मंदिर का निर्माण शुरू कराया। आज जिस स्वरूप में यह मंदिर है उसका प्रारम्भ वर्ष 1998 में हुआ। उनके पिता जी ने लोगों की मदद से मंदिर का पूरा नक्शा बनवाया और उसका निर्माण शुरू कराया। वर्ष 1991 की बाढ़ ने जब कहर बरपाया तो इस क्षेत्र के कुछ गांवों के लोग विस्थापित होकर यहां बस गए और उन्होंने मंदिर के कुछ जमीन पर कब्जा कर लिया इसका मुकदमा आज भी चल रहा है।


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